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क्या हमारी धरती खतरे में है?

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क्या हमारी धरती खतरे में है?

क हा गया है कि धरती का बढ़ता तापमान मानवजाति के सामने सबसे बड़ा खतरा है। साइंस पत्रिका कहती है कि वैज्ञानिकों को एक बात खाए जा रही है कि धरती का तापमान, “भले ही धीरे-धीरे बढ़ रहा है, मगर यह लगातार बढ़ता जा रहा है और इस पर रोक लगाना नामुमकिन है।” लेकिन आलोचकों को इस दावे पर शक है। उनका कहना है कि ज़्यादातर वैज्ञानिक जो मानते हैं कि धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है, वह बिलकुल सच है। मगर इसकी वजह क्या है और इसके क्या नतीजे होंगे, इस बारे में वैज्ञानिक सिर्फ अटकलें लगाते रहते हैं। आलोचकों का कहना है कि इंसानों की गतिविधियाँ एक वजह हो सकती है, मगर ज़रूरी नहीं कि यही सबसे बड़ी वजह हो। आखिर ऐसी अलग-अलग राय क्यों?

एक बात तो यह है कि धरती के मौसम को नियंत्रित करनेवाली प्रक्रियाएँ बहुत ही जटिल हैं, जिनके बारे में अभी तक कोई पूरी तरह नहीं समझ सका है। इसके अलावा कुछ संगठन, वैज्ञानिक आँकड़ों के आधार पर इस मामले में अपनी ही अटकलें लगाते हैं।

तापमान, क्या यह वाकई बढ़ रहा है?

जलवायु पर अध्ययन करनेवाली संयुक्‍त राष्ट्र की एक समिति, इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) ने हाल की एक रिपोर्ट में बताया कि धरती का बढ़ता तापमान एक “सच्चाई” है और इसके लिए “काफी हद तक” इंसान ही कसूरवार है। लेकिन कुछ लोगों के मुताबिक इंसान इसका ज़िम्मेदार नहीं है, पर वे इतना ज़रूर मानते हैं कि शहरों में लोगों की तादाद बढ़ जाने की वजह से वहाँ का तापमान चढ़ता जा रहा है। इसके अलावा, कंक्रीट और स्टील सूरज की गर्मी जल्दी सोख लेते हैं, मगर रात में उन्हें ठंडा होने में काफी वक्‍त लगता है। आलोचकों का कहना है कि शहरों के तापमान से हम ग्रामीण इलाकों के तापमान का अंदाज़ा नहीं लगा सकते। इसलिए धरती के सही तापमान का पता लगाना मुश्‍किल है।

लेकिन अलास्का के पास के एक द्वीप में रहनेवाले बुज़ुर्ग क्लिफर्ड की बात लीजिए। वह कहता है कि उसने अपनी ज़िंदगी में तापमान में आए बदलावों को देखा है। पहले सर्दी के मौसम में जब समुंदर पर बर्फ जमती थी, तो उसके गाँव के लोग उस पर चलकर महाद्वीप पर जाते थे। वहाँ वे अमरीकी रेन्डियर और अमरीकी हिरन का शिकार करते थे। लेकिन तापमान बढ़ने की वजह से उनके बरसों से चले आ रहे रहन-सहन में खलल पड़ गया है। वह कहता है, “समुद्र की धाराओं में फर्क आ गया है, अब बर्फ पहले की तरह नहीं जमती और ‘चक्ची सागर’ भी अपने समय पर नहीं जमता।” वह कहता है कि पहले तो समुद्र अक्टूबर महीने के आखिर तक जम जाता था, लेकिन अब तो यह कहीं दिसंबर के आखिर में जाकर जमता है।

इसके अलावा, सन्‌ 2007 में उत्तर अमरीका के उत्तरी भाग से गुज़रनेवाले समुद्री रास्ते, नॉर्थ-वेस्ट पेसेज में भी तापमान का असर साफ देखा गया। इतिहास में पहली बार बर्फ न जमने की वजह से यह रास्ता पूरी तरह खुला था। अमरीका के ‘नैशनल स्नो एण्ड आइस डेटा सेंटर’ के एक बड़े वैज्ञानिक ने कहा, “इस साल हमने गौर किया कि बर्फ पिघलने का मौसम लंबे समय तक चला।”

ग्रीनहाउस प्रभाव—ज़िंदगी के लिए बहुत ज़रूरी

बढ़ते तापमान की एक और वजह बतायी जाती है, ग्रीनहाउस प्रभाव। यह ज़िंदगी के लिए बहुत ज़रूरी है। जब सूरज की ऊर्जा धरती पर पहुँचती है, तो उसका 70 प्रतिशत भाग हवा, ज़मीन और सागर सोख लेते हैं जिससे वे गर्म हो जाते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो धरती की सतह का औसत तापमान -18 डिग्री सेल्सियस ही रहता। यह सोखी हुई ऊर्जा बाद में प्रकाश तरंगों के रूप में अंतरिक्ष में लौट जाती है। इस तरह धरती हद-से-ज़्यादा गर्म नहीं होती। लेकिन प्रदूषण की वजह से वातावरण इतना दूषित हो गया है कि ज़्यादा ऊर्जा ऊपर नहीं जा पाती, जिससे धरती का तापमान बढ़ सकता है।

जिन गैसों की वजह से ग्रीनहाउस प्रभाव पैदा होता है वे हैं, कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, मीथेन और भाप। पिछले 250 सालों में, जब से औद्योगिक क्रांति शुरू हुई है और कोयले और तेल की खपत बढ़ गयी है, तब से वातावरण में इन गैसों की मात्रा काफी बढ़ गयी है। एक और वजह है पालतू जानवरों की बढ़ती संख्या, जो मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसें छोड़ते हैं। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि धरती के तापमान में ये बदलाव इंसानों की छेड़-छाड़ से कहीं पहले शुरू हो गए थे।

क्या सिर्फ एक कुदरती बदलाव?

जो इस बात को नहीं मानते कि धरती का तापमान बढ़ने की असल वजह इंसान हैं, उनका कहना है कि यह बदलाव कोई नयी बात नहीं है, पुराने समय में भी भारी बदलाव हुए थे। उनके मुताबिक हिम-युग हुआ करते थे, जिसके बाद फिर एक ऐसा समय आया जब गर्मी पड़ने लगी। बढ़ते तापमान की बात पुख्ता करने के लिए वे ग्रीनलैंड का उदाहरण देते हैं जो ठंडा द्वीप है। वे कहते हैं कि एक ज़माने में ग्रीनलैंड में ऐसे पेड़-पौधे उगते थे, जो सिर्फ गर्म जगहों में पाए जाते हैं यानी एक ज़माने में वह गर्म प्रदेश था। दूसरी तरफ, वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि समय की धारा में हम जैसे-जैसे पीछे जाते हैं, जलवायु के बारे में उतने यकीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता।

लेकिन पुराने ज़माने में धरती के तापमान में इतना भारी बदलाव किस वजह से आया होगा? इसकी एक वजह सूरज से निकलनेवाली ऊर्जा बतायी जाती है, जो सूरज के धब्बे और सौर ज्वाला की वजह से घटती-बढ़ती रहती है। इसके अलावा, धरती सूरज के चारों तरफ जिस कक्षा में घूमती है, उसमें हज़ारों सालों के दौरान बदलाव आते हैं। इससे धरती की सूरज से दूरी भी घटती-बढ़ती रहती है, जिसका असर तापमान पर पड़ता है। साथ ही ज्वालामुखी धूलि और समुंदर की धाराओं में बदलाव की वजह से भी तापमान में फर्क आता है।

मौसम की जानकारी के लिए कंप्यूटर-प्रोग्राम

धरती के तापमान के बढ़ने की वजह चाहे जो हो, लेकिन अगर यह बढ़ रहा है तो यह जानना ज़रूरी है कि इसका हम पर और पर्यावरण पर क्या असर होगा? बेशक इस मामले में सही-सही कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन वैज्ञानिकों के पास आज अच्छी तकनीक के कंप्यूटर हैं, जिनके इस्तेमाल से वे मौसम का अंदाज़ा लगा पाते हैं। अपने कंप्यूटर-प्रोग्राम में उन्होंने भौतिक-विज्ञान के नियम, मौसम के और प्राकृतिक बदलावों से ताल्लुक रखनेवाले आँकड़े डाले हैं।

वैज्ञानिक, कंप्यूटर-प्रोग्राम की मदद से भविष्य की जलवायु के बारे में अलग-अलग तरीकों से पता लगा सकते हैं, जो वैसे तो नामुमकिन होता। मसलन, वे सूरज से निकलनेवाली ऊर्जा में “बदलाव” लाकर देख सकते हैं कि इसका असर बर्फ, हवा और समुद्र के तापमान, भाप, वायुमंडल के दबाव, बादलों के निर्माण, पवन और वर्षा पर क्या होगा। वे कंप्यूटर-प्रोग्राम पर ज्वालामुखी विस्फोट “बनाकर” यह पता लगा सकते हैं कि ज्वालामुखी धूलि का मौसम पर क्या असर होगा। वे यह भी पता लगा सकते हैं कि इंसानों की बढ़ती आबादी, जंगलों की कटाई, भूमि के इस्तेमाल, ग्रीनहाउस गैसों में आनेवाले बदलाव वगैरह का तापमान पर क्या असर होगा। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि समय के साथ-साथ उनके कंप्यूटर-प्रोग्राम और भी भरोसेमंद हो जाएँगे और वे सही-सही नतीजे बता पाएँगे।

मगर उनके आज के कंप्यूटर-प्रोग्रामों पर कितना भरोसा किया जा सकता है? यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि उनमें कितने आँकड़े डाले गए हैं और वे कितनी हद तक सही हैं। इसीलिए जलवायु के अनुमानों में कभी थोड़ा, तो कभी भारी फर्क देखा गया है। इसके अलावा, साइंस पत्रिका कहती है कि जलवायु में होनेवाले [प्राकृतिक] बदलाव भी हैरत में डाल सकते हैं। और यह सच भी है, क्योंकि जब उत्तर ध्रुव की बर्फ बड़ी तेजी से पिघली, तो उसने मौसम वैज्ञानिकों को हैरत में डाल दिया। लेकिन इतना तो तय है, अगर नियम बनानेवालों को इंसानों की हरकतों के नतीजों का थोड़ा-बहुत भी अंदाज़ा लग जाए, तो वे ऐसे कदम उठा सकते हैं जिससे आनेवाली समस्याओं को कम किया जा सकता है।

इस बात को ध्यान में रखकर IPCC ने मौसम और पर्यावरण के नतीजे जानने के लिए कंप्यूटर पर ग्रीनहाउस गैसों से संबंधित 6 अलग-अलग प्रोग्राम तैयार किए। इन प्रोग्रामों में उन्होंने बड़े पैमाने पर ग्रीनहाउस गैसों के निकलने से लेकर, आज जितनी निकल रही हैं और पूरी तरह नियंत्रित गैसों से संबंधित आँकड़ें डाले। इनसे मिले अनुमानों को मद्देनज़र रखते हुए वैज्ञानिक कहते हैं कि हमें कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। उनमें से कुछ हैं, ईंधन जलाने से निकलनेवाले धुएँ पर रोक लगाना, नियम तोड़नेवालों को सज़ा देना, परमाणु ऊर्जा का उत्पादन बढ़ाना, और ऐसी तकनीक इजाद करना जो पर्यावरण को नुकसान न पहुँचाती हो।

क्या कंप्यूटर-प्रोग्राम भरोसेमंद हैं?

आलोचकों का कहना है कि मौसम का अनुमान लगाने के लिए फिलहाल जो कंप्यूटर-प्रोग्राम हैं, उनमें “जलवायु की प्रक्रियाओं से जुड़े सारे आँकड़ें इस्तेमाल नहीं किए गए हैं और जो किए भी गए हैं, उनका भी कुछ पक्का आधार नहीं है” और “कुछ प्रक्रियाओं को तो बिलकुल नज़रअंदाज़ कर दिया गया है।” वे यह भी कहते हैं कि कंप्यूटर से मिलनेवाले नतीजे हमेशा एक-से नहीं होते। एक वैज्ञानिक, जिसने IPCC की चर्चा में हिस्सा लिया था, कहता है: “जलवायु प्रक्रिया इतनी जटिल है कि उसके बारे में समझना और उसके आँकड़ें इकट्ठे करना बिलकुल आसान नहीं। हममें से कुछ को तो ऐसा लगता कि हम कभी यह पूरी तरह नहीं समझ पाएँगे कि जलवायु में क्या-क्या बदलाव हो रहे हैं और क्यों।” *

ऐसे में कुछ लोग यह कहेंगे कि भले ही आज हमारे पास सही-सही जानकारी न हो, लेकिन हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने से तो हम अपने भविष्य को दाँव पर लगा देंगे। वे कहते हैं: “हम अपनी आनेवाली पीढ़ी को क्या मुँह दिखाएँगे?” कंप्यूटर-प्रोग्राम भविष्य के बारे में चाहे जो नतीजे निकाले, मगर यह बात सच है कि धरती की हालत बिगड़ती जा रही है। इस हकीकत को नकारा नहीं जा सकता कि हमारे पर्यावरण पर प्रदूषण, पेड़ों की कटाई, नए-नए शहरों के निर्माण, जीव-जंतुओं के लुप्त होने और ऐसी दूसरी कई वजहों से संकट बढ़ता जा रहा है।—प्रकाशितवाक्य 11:18.

ऐसे में क्या हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि पूरी मानवजाति अपने जीने के तरीके में बदलाव करके हमें और हमारी इस खूबसूरत धरती को बचा पाएगी? इससे भी बड़ी चिंता यह है कि अगर इंसानों की हरकतें ही धरती के बढ़ते तापमान की वजह है, तब तो बदलाव लाने के लिए सदियाँ नहीं, चंद साल ही रह गए हैं। इसलिए हमें समस्या की असल जड़, यानी इंसानों के लालच, नाकाबिल सरकारों, गैर-ज़िम्मेदाराना रवैए, खुदगर्ज़ी और सही ज्ञान की कमी को दूर करने के लिए जल्द-से-जल्द कदम उठाना होगा। क्या ऐसा कभी होगा या यह सिर्फ एक ख्वाब है? अगर आपको यह ख्वाब लगता है तो क्या हमारे पास कोई आशा नहीं? इस सवाल का जवाब अगले लेख में दिया जाएगा। (g 8/08)

[फुटनोट]

^ यह बात 1 नवंबर, 2007 के द वॉल स्ट्रीट जर्नल अखबार में जॉन आर. क्रिस्टी ने कही। वे अमरीका में अलबामा विश्‍वविद्यालय के ‘अर्थ सिस्टम साइंस सेंटर’ के निदेशक हैं।

[पेज 5 पर बक्स/तसवीर]

आप धरती का तापमान कैसे मापेंगे?

इसमें जो चुनौतियाँ शामिल हैं, ज़रा उन पर गौर फरमाइए। मसलन, एक बड़े कमरे का तापमान आप कैसे मापेंगे? आप थर्मामीटर को कमरे में किस जगह रखेंगे? ऊष्मा या गर्मी ऊपर की ओर उठती है इसलिए निचले हिस्से की हवा के मुकाबले, छत के पास की हवा ज़्यादा गर्म होगी। अगर थर्मामीटर को खिड़की के पास रखा जाए जहाँ उस पर सीधी धूप पड़ती है, तो उसका तापमान ज़्यादा होगा मुकाबले उसके कि अगर उसे कहीं छाँव में रख दिया जाए। इसके अलावा, रंगों का भी तापमान पर असर पड़ता है क्योंकि रंग जितना गहरा होगा वह उतनी ही ऊष्मा सोखेगा।

इसलिए एक माप काफी नहीं है। आपको कमरे में अलग-अलग जगहों का तापमान लेकर उसका औसत निकालना होगा। यही नहीं, तापमान हर दिन बदलता रहता है और मौसम के हिसाब से भी उसमें फर्क आता है। इसलिए औसत तापमान जानने के लिए आपको कई दिनों तक कई बार तापमान लेने की ज़रूरत पड़ेगी। अगर एक कमरे का तापमान मापना इतना मुश्‍किल है, तो सोचिए कि पूरी धरती की सतह, वायुमंडल और महासागरों का तापमान लेना और भी कितना पेचीदा होगा! लेकिन फिर भी जलवायु में होनेवाले परिवर्तन का सही-सही अनुमान लगाने के लिए ये आँकड़े बहुत ज़रूरी हैं।

[चित्र का श्रेय]

NASA photo

[पेज 6 पर बक्स]

क्या परमाणु ऊर्जा से हल निकल सकता है?

दुनिया-भर में ऊर्जा के इस्तेमाल में काफी बढ़ोतरी हो रही है। इसलिए कुछ सरकारें परमाणु ऊर्जा इस्तेमाल करने की सोच रही हैं, क्योंकि तेल और कोयले को जलाने से जो ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं, उनसे पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा है। लेकिन परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल का चुनाव भी मुश्‍किलें खड़ी करता है।

इंटरनैशनल हेरल्ड ट्रिब्यून अखबार रिपोर्ट करता है कि सबसे ज़्यादा परमाणु ऊर्जा फ्रांस में पैदा की जाती है। वहाँ परमाणु रिएक्टरों को ठंडा करने के लिए हर साल करीब 190 खरब लीटर पानी इस्तेमाल किया जाता है, जो गर्म होने के बाद नदियों में छोड़ दिया जाता है। लेकिन सन्‌ 2003 में हद-से-ज़्यादा गर्मी बढ़ने की वजह से, इन नदियों का तापमान और बढ़ गया, जो कि पर्यावरण के लिए खतरनाक साबित हो सकता था। इसलिए कुछ परमाणु रिएक्टरों को बंद करना पड़ा। अगर धरती का तापमान बढ़ गया, तो हालात और गंभीर होने की संभावना है।

संबद्ध वैज्ञानिक संघ (यू.सी.एस.) के परमाणु इंजीनियर डेविड लॉकबाउम कहते हैं, “अगर हम परमाणु ऊर्जा इस्तेमाल करना चाहते हैं, तो पहले हमें जलवायु में होनेवाले बदलावों की समस्या का हल ढूँढ़ना होगा।”

[पेज 7 पर बक्स/नक्शा]

सन्‌ 2007 में मौसम का कहर

सन्‌ 2007 में बिगड़ते मौसम ने इतनी जगहों पर कहर ढाया, जितना पहले कभी नहीं देखा गया। सन्‌ 2005 में संयुक्‍त राष्ट्र के राहत-कार्यलय ने आपातकालीन मदद के लिए 10 दरख्वास्त की थी, मगर सन्‌ 2007 में यह बढ़कर 14 हो गयीं। सन्‌ 2007 में जिन देशों पर मौसम की मार पड़ी, उनमें से कुछ के बारे में नीचे बताया गया है। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि ये विपत्तियाँ उन देशों में आती रहेंगी।

◼ ब्रिटेन: सन्‌ 2007 में आयी भयानक बाढ़ की वजह से 3,50,000 से ज़्यादा लोगों को भारी नुकसान पहुँचा। इतनी भयंकर बाढ़ पिछले 60 सालों में कभी नहीं आयी। इंग्लैंड और वेल्स में सन्‌ 1766 से, जब से बारिश का रिकॉर्ड रखा जाने लगा, तब से अब तक की सबसे ज़्यादा बारिश सन्‌ 2007 में मई से जुलाई के बीच हुई।

◼ पश्‍चिम अफ्रीका: बाढ़ ने चौदह देशों में 8,00,000 लोगों पर कहर ढाया।

◼ लसोथो: बढ़ते तापमान और सूखे की वजह से फसलें नष्ट हो गयीं। इस वजह से करीब 5,53,000 लोगों को खाना मुहैया कराने की ज़रूरत पड़ेगी।

◼ सूडान: मूसलाधार वर्षा ने 1,50,000 लोगों को बेघर कर दिया। करीब 5,00,000 लोगों को मदद दी गयी।

◼ मेडागास्कर: भयंकर तूफान और भारी वर्षा ने इस द्वीप पर ऐसा प्रहार किया कि 33,000 लोगों को अपना घर-बार छोड़कर जाना पड़ा और 2,60,000 लोगों की फसलें पूरी तरह बरबाद हो गयीं।

◼ उत्तर कोरिया: बड़े पैमाने पर आयी बाढ़, पहाड़ों से पत्थरों और चट्टानों के खिसकने, साथ ही कीचड़ बहने की वजह से लगभग 9,60,000 लोगों को भारी नुकसान पहुँचा।

◼ बाँग्लादेश: बाढ़ की वजह से 85 लाख लोगों की ज़िंदगी में आफत आ गयी। 3,000 से ज़्यादा इंसान और 12.5 लाख पालतू जानवर इसकी भेंट चढ़ गए। इसके अलावा करीब 15 लाख घर या तो टूट-फूट गए या पूरी तरह से ढह गए।

◼ भारत: बाढ़ की वजह से 3 करोड़ लोगों पर बुरा असर हुआ।

◼ पाकिस्तान: तूफानी बारिश की वजह से 3,77,000 लोग बेघर हो गए और सैंकड़ों की जान चली गयी।

◼ बोलीविया: 3,50,000 लोग बाढ़ से प्रभावित हुए और 25,000 लोगों के सिर से छत उठ गयी।

◼ मेक्सिको: देश में आयी बाढ़ की वजह से करीब 5,00,000 लोग बेघर हो गए और 10 लाख से ज़्यादा लोगों पर इसका बुरा असर हुआ।

◼ डोमिनिकन रिपब्लिक: कई दिनों तक हुई मूसलाधार बारिश की वजह से बाढ़ आयी और पहाड़ों से चट्टानें खिसकने लगीं, जिसके चलते 65,000 लोग बेघर हो गए।

◼ अमरीका: दक्षिण केलिफोर्निया के जंगलों और खेतों में आग लगने की वजह से 5,00,000 लोगों को मजबूरन अपना घर-बार छोड़कर भागना पड़ा।

[चित्र का श्रेय]

Based on NASA/Visible Earth imagery